जब भुरभुरी रेत पर,
अंगार उगलती चढ़ती है धूप।
तेज गर्म आँधियों में,
जब उखड़ने मिटने लगते हैं।
कदमों के निशा...,
तब सुर्ख़ पीले पड़े होठों पर,
पड़ी दरदरी सिलवटें बताती है।
रेत की दरिया में डूबी जिंदगी का सच...,
वही सच।
जिसमें दम तोड़ते है जाने कितने ही रेशमी ख्वाब...,
जो वह बुनता है।
रात्रि के तीसरे पहर चाँद की शीतलता में बैठकर....
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